प्रेम कोई भावना नहीं है, प्रेम तो आपका अस्तित्व है। हर व्यक्त्ति के परे प्रेम है। व्यक्त्तित्व बदलता है। शरीर, मन और व्यवहार हमेशा बदलते रहते हैं। हर व्यक्त्तित्व से परे अपरिवर्तनशील प्रेम है; वह प्रेम तुम हो। जब स्वयं को खो दोगे, तो स्वयं को पा लोगे। घटना के पीछे की घटना ज्ञान है। वस्तु के पीछे की वस्तु अनन्त है। व्यक्त्ति के परे व्यक्त्ति प्रेम है।

वस्तु के परे अनन्त है। व्यक्त्ति के परे प्रेम है। घटना, व्यक्त्तित्व और वस्तु में फँस जाना माया है। घटना, व्यक्त्तित्व और वस्तु के परे देखना प्रेम है। देखने का जरा सा ही फेर है।

प्रेम के प्रकार

प्रेम के तीन प्रकार होते हैं:

  1. प्रेम जो आकर्षण से पैदा होता है।
  2. जो सुख सुविधा के लोभ से पैदा होता है।
  3. और, दिव्य प्रेम।

प्रेम जो आकर्षण से पैदा होता है, वह क्षणिक होता है। क्योंकि वह अज्ञान या सम्मोहन के कारण से होता है। इसमें आपका आकर्षण से जल्दी ही मोह भंग हो जाता है और आप ऊब जाते हैं। यह प्रेम धीरे-धीरे कम होने लगता है और भय, अनिश्चिता, असुरक्षा और उदासी लाता है।

जो प्रेम सुख सुविधा से मिलता है वह घनिष्टता लाता है परन्तु उसमें कोई जोश, उत्साह, या आनंद नहीं होता है। उदाहरण के लिए आप एक नए मित्र की तुलना में अपने पुराने मित्र के साथ अधिक सुविधापूर्ण महसूस करते हैं क्योंकि वह आपसे परिचित है।

दिव्य प्रेम सदाबहार होता है

दिव्य प्रेम सबसे उच्च कोटि का प्रेम है। यह सदाबहार होता है और सदा नवीन बना रहता है। आप जितना इसके निकट जाएँगे उतना ही इसमें अधिक आकर्षण और गहनता आती है। इसमें कभी भी थकान नहीं आती है और यह हर किसी को उत्साह में रखता है।

सांसारिक प्रेम सागर के जैसा है, परन्तु सागर की भी सीमा होती है। दिव्य प्रेम आकाश के जैसा है जिसकी कोई सीमा नहीं है। सागर की सीमा से आकाश की ओर ऊँची उड़ान भरो। ईश्वरीय प्रेम सभी संबंधो से परे है और इसमें सभी संबंध सम्मिलित होते हैं।

पहली नजर का प्रेम क्या होता है

अक्सर लोग पहली नजर में प्रेम को अनुभव करते हैं। फिर जैसे समय गुजरता है, यह कम और दूषित हो जाता है और घृणा में परिवर्तित होकर गायब हो जाता है। जब प्रेम में ज्ञान की खाद डाली जाए तो वही प्रेम वृक्ष बन जाता है और प्राचीन प्रेम का रूप लेकर जन्म जन्मांतर साथ रहता है। वह हमारी स्वयं की चेतना है। आप इस वर्तमान शरीर, नाम, स्वरूप और संबंधो से सीमित नहीं हैं। आपको अपना अतीत और प्राचीनता पता न हो लेकिन बस इतना जान लें कि आप प्राचीन हैं। यह भी पर्याप्त है।

प्रेम स्वीकार कैसे करें

कई बार प्रेम उलझा हुआ लगता है क्योंकि लोगों को यह पता ही नहीं कि प्रेम को कैसे स्वीकार किया जाए। कोई आपके पास आकर कहने लगता है, मैं आपको बहुत प्यार करता/करती हूँ। बस‌ थोड़ी ही देर में आप अपने कान बंद कर लेना चाहते हैं और कहने लगते हैं, ‘बस करो, मेरे लिए यह सब बहुत भारी हो रहा है, मैं इससे भागना चाहता हूँ। बात तो यह है कि वह व्यक्ति प्यार में भी घुटन महसूस करने लगता है। यह इसलिए कि हम अपने भीतर कभी उतरे ही नहीं। हमने कभी महसूस भी नहीं किया कि हम कौन हैं। हमें यह पता ही नहीं कि हम ऐसी एक चीज से बने हुए हैं, जिसका नाम प्रेम है। जब हम अपने खुद के साथ जुड़े हुए नहीं हैं तो फिर दूसरे के साथ जुड़ पाना इतना स्वाभाविक नहीं हो पाता। और इसलिए, दूसरा कोई आपसे जुड़ना चाहे तो आप इतने बेचैन हो जाते हैं क्योंकि आप तो महसूस करते हैं कि आप खुद के साथ ही नहीं मिल पाए हैं इसलिए प्यार को कैसे स्वीकार किया जाए यह आप समझ नहीं पाते।

प्रेम करना एक कला है

आपके पास प्रेम देने की कुशलता होनी चाहिए। प्रेम देने का कौशल अर्थात् प्यार में डूब जाना, केवल कोशिश करना नहीं। प्रेम कोई कार्य नहीं है, वह तो आपके मन की अवस्था है। आपको उसमें बिना कोई शर्त के रहना है। देखिये, मै यहाँ आपके लिए बिना कोई शर्त के उपस्थित हूँ। अब यहां आकर उसको स्वीकार करना आप पर ही निर्भर है। आपकी अंदर की ताकत की वजह से लोग आपको बेहतर समझ सकते हैं। उसी तरह आप किसी को बेहद प्यार करते हैं, आप यह उन्हें समझाने की जबरदस्ती नहीं कर सकते। यह सब हो पाने के लिए आपको थोड़ा समय बीत जाने देना होगा क्योंकि आपको पता ही है कि ऐसे मामले में जबरदस्ती करने से और बाकी समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं।

जब कोई आपसे प्रेम न करे तो क्या करें

जब लोग आपको प्रेम और सम्मान देते हैं तब आप विवश होकर शिष्टाचार निभाते हैं क्योंकि आप उन्हें व्यथित नहीं करना चाहते। पर जब वे आपको सम्मान और प्रेम नहीं देंगे, तब वे आपकी अभिव्यक्त्ति से प्रभावित नहीं होंगे। वे आपको स्वतंत्र कर देते हैं। इसलिए अगली बार जब कोई आपको प्रेम व सम्मान न दे तो दुखी न हों बल्कि ये जान लें कि आप बहुत सी औपचारिकताओं से मुक्त हो गए, स्वतंत्र हो गए।

प्रेम पर शंका क्यों होती है

आप केवल अपने जीवन की सकारात्मक चीजों पर ही शंका करते हैं नकारात्मक चीजों पर शंका नहीं करते। आप किसी की ईमानदारी पर शंका करते हैं और उसकी बेईमानी पर विश्वास। जब कोई आपसे नाराज होता है तो उसकी नाराजगी पर आपको कोई शंका नहीं होती। पर जब कोई कहे कि वे आपको प्रेम करते हैं तभी शंका आ जाती है और आप सोचने लगते हैं “क्या सच में वे मुझसे प्रेम करते हैं?”

जब कोई आपके प्रेम पर संदेह करे तो क्या करें

आप वास्तव में किसके साथ सहज और स्वच्छन्द अनुभव करते हैं ? उनके साथ जो आपके प्रेम पर सन्देह नहीं करता, जो नि:सन्देह विश्वास करता है कि आप उसको प्रेम करते हैं। है ना?

जब कोई आपके प्रेम पर सन्देह करता है और निरन्तर आपको, अपने प्रेम को साबित करना पड़े तो फिर यह आपके लिए एक भारी बोझ बन जाता है। वे आपसे प्रश्न करते हैं और आपके प्रत्येक कार्य का स्पष्टीकरण चाहते हैं। आप जो भी करते हैं, उसकी व्याख्या देना मानसिक बोझ है।

आप सदा साक्षी हैं। स्वयं के कार्यों के प्रति भी आप उतने ही साक्षी हैं जितने दूसरों के कार्यों के प्रति। जब लोग आपसे आपके कार्यों का स्पष्टीकरण मांगते हैं तो वे कर्ता भाव से बोल रहे हैं और उस कर्तापन को आप पर थोप रहे हैं। यह बेचैनी लाता है। न तो स्पष्टीकरण माँगें और न ही दें।

प्रेम अधूरा क्यों है

‘सखा’ जीवन और मत्यु का साथी है – यह कभी साथ नहीं छोड़ता। सखा को केवल प्रियतम चाहिए। उसे ज्ञान या मुक्त्ति की परवाह नहीं। उत्कंठा, तृष्णा के कारण प्रेम अधूरा है। उसका प्रेम असीम है और अनन्तता में कभी पूर्णता संभव नहीं। उसका प्रेम अनन्त अपूर्णता में पूर्ण है। प्रेम के पथ का कोई अंत नहीं।

प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो

प्रेम को केवल प्रेम रहने दो। उसे कोई नाम न दो। जब आप प्रेम को नाम देते हैं, तब वह एक संबंध बन जाता है, और संबंध प्रेम सीमित करता है।

आप में और मुझ में प्रेम है। बस, उसे रहने दीजिए। यदि आप प्रेम को भाई, बहन, माता, पिता, गुरु का नाम देते हैं, तब आप उसे संबंध बना रहे हैं। संबंध प्रेम को सीमित कर देता है। स्वयं अपने साथ आपका क्या संबंध है? क्या आप अपने भाई, पति, पत्नी या गुरु हैं?

प्रेम को प्रेम ही रहने दो। उसे कोई नाम ना दो।

यह लेख गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के ज्ञान पत्र, सच्चे साधक की अन्तरंग वार्ता पर आधारित है।

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