तुलसीदास जी के जन्म की कथा बहुत ही अद्भुत है, जो उनके महापुरुष होने का उनके जन्म के समय ही इंगित करती है। आज के भारत वर्ष के उत्तरप्रदेश के चित्रकूट जिले में राजापुर नाम का एक गांव है, जहाँ तुलसीदास जी के पिता, आत्मा राम दुबे निवास करते थे। वे एक सम्मानित ब्राह्मण थे।

तुलसीदास जी की माता का नाम हुलसी था। तुलसीदास जी का जन्म सम्वत 1557 में श्रावण मास में शुक्ल सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ। यह नक्षत्र शुभ नहीं माना जाता है। इस शंका को बढ़ाने के लिए जो घटनाएं हुईं, उनमें कुछ हैं, जैसे तुलसीदास जी जन्मते ही रोये ही नहीं अपितु उनके मुँह से राम शब्द निकला। उनके शरीर का आकार भी सामान्य शिशु की तुलना में अधिक था और सबसे बढ़कर उनके मुख में जन्म के समय ही दाँतों की उपस्थिति थी। यह सब लक्षण देखकर उनके पिता किसी अमंगल की आशंका से भयभीत थे।

उनकी माता ने घबराकर, कि बालक के जीवन पर कोई संकट न आए, अपनी एक चुनियां नाम की दासी को बालक के साथ उसके ससुराल भेज दिया। विधि का विधान ही कुछ और था और वे अगले दिवस ही गोलोक वासी हो गई। चुनियां ने बालक तुलसीदास का पालन पोषण बड़े प्रेम से किया पर जब तुलसीदास जी करीब साढ़े पाँच वर्ष के हुए तो चुनियां शरीर छोड़ गई। । अनाथ बालक द्वार – द्वार भटकने लगा। इस पर माता पार्वती को दया आई और वे एक ब्राह्मणी का वेश रखकर प्रतिदिन बालक को भोजन कराने लगीं। 

श्री अनन्तानन्दजी के प्रिय शिष्य श्री नरहर्यानन्दजी जो रामशैल पर निवास कर रहे थे, उन्हें भगवान शंकर से प्रेरणा प्राप्त हुई और वे बालक तुलसीदास को ढूढ़ते हुए वहाँ पहुंचे और मिलकर उनका नाम रामबोला रखा। वे बालक को अपने साथ अयोध्या ले गए और वहाँ उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। तुलसीदास जी ने जहाँ बिना सिखाए ही गायत्री मंत्र का उच्चारण कर सभी को एक बार फिर चकित कर दिया। नरहरि महाराज ने वैष्णवों के पांच संस्कार कराए और राम मंत्र से दीक्षित किया। 

फिर, उनका विद्याध्ययन प्रारम्भ हो गया। तुलसीदास जी जो भी एक बार सुन लेते थे उसे वे कंठस्थ कर लेते थे। उनकी प्रखर बुद्धि की सभी प्रशंसा करते थे। फिर एक बार नरहरि महाराज उन्हें लेकर शूकर क्षेत्र सोरों पहुँचे, जहाँ उन्होंने रामचरितमानस सुनाई। और उन्हें काशी में शेषसनातन जी के पास वेदाध्ययन के लिए छोड़ गए। यहाँ तुलसीदास जी ने 15 वर्ष वेद-वेदांग का अध्ययन किया। 

उन्हीं दिनों उनका मन संसार की ओर प्रवृत हुआ और वे अपने गांव वापस आए, जहाँ आकर उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। वहाँ उन्होंने अपने पिता सहित सभी पितरों का श्राद्ध किया और राम कथा सुना कर जीवन यापन करने लगे।

वहीं गुरुजनों के परामर्श से उन्होंने रत्नावली नामक एक सुन्दर कन्या से सम्वत 1583 में ज्येष्ठ मास की शुक्ल 13 को विवाह किया और सुखपूर्वक वैवाहिक जीवन बिताने लगे। एक दिन पत्नी के भाई के साथ मायके चले जाने पर वे उनके पीछे पीछे पहुँच गए। इससे पत्नी को बहुत रोष हुआ और उन्होंने धिक्कारते हुए कहा कि आपकी जैसी आसक्ति मेरे हाड़ मांस के शरीर में है ऐसी यदि भगवान में होती तो आपका बेड़ा पार हो जाता। यह बात तुलसीदास जी को चुभ गई और वह उसी समय वहाँ से चल दिए।

उन्होंने प्रयागराज पहुँच कर सन्यास लिया‌ और तीर्थाटन करने लगे। इसी क्रम में, मानसरोवर में उन्हें काकभुशुण्डि जी के दर्शन हुए। तीर्थाटन के पश्चात् तुलसीदास जी काशी में रहकर राम कथा सुनाने लगे। यहीं पर उनकी एक प्रेत से भेंट हुई जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बताया। तुलसीदास जी हनुमान जी से जब मिले तो उन्होंने भगवान राम के दर्शन की लालसा जताई और उनसे दर्शन कराने की विनती की। हनुमान जी ने उन्हें कहा कि श्री राम जी के दर्शन उन्हें चित्रकूट में होंगे। हनुमान जी का आशीष प्राप्त कर वे चित्रकूट पहुँचे। 

चित्रकूट में उन्होंने रामघाट पर अपना एक स्थान तय किया और वहीं प्रभु के दर्शन के इंतजार में साधनारत हो गए। वहीं एक बार प्रदक्षिणा करते हुए मार्ग में ही रघुनाथ जी के दर्शन हुए और वे उन्हें पहचान नहीं पाए। उन्होंने घोड़े पर सवार अद्भुत छवि वाले दो राजकुमार देखे जो धनुष और बाण लिए हुए थे, तुलसीदास जी बस उन्हें देखते ही रह गए पर उन्हें पहचान न सके। हनुमान जी ने उन्हें आकर बताया कि आज आपको प्रभु श्री राम के दर्शन हुए। इस पर तुलसीदास जी बहुत दुखी हुए कि वे उन्हें पहचान न सके। तब हनुमान जी ने उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहा कि आपको कल सुबह फिर से एक बार दर्शन होंगे।

 मौनी अमावस्या के उस सुन्दर बुधवार के दिन सम्वत 1607 में भगवान राम उनके सम्मुख पुनः प्रकट हुए। इस बार वे बालक के रूप में थे। उन्होंने तुलसीदास जी से कहा, बाबा हमें चन्दन दो। पर तुलसीदास जी दर्शन में ऐसे खोए कि प्रभु की वाणी भी नहीं सुनी। तब हनुमान जी ने तुलसीदास जी की सहायता के लिए तोते के रूप में आकर एक दोहा बोला – चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर, तुलसीदास चन्दन घिसत तिलक देत रघुबीर॥

प्रभु श्री राम ने अपने हाथ से ही चन्दन लेकर अपने और तुलसीदास जी के माथे पर लगाया और अंतर्ध्यान हो गए। एक बार तीर्थटन करते हुए तुलसीदास जी प्रयाग पहुँचे। वहाँ माघ मेला चल रहा था। वे वहाँ कुछ दिन रुक गए और छः दिन के बाद उन्हें एक वृक्ष के नीचे भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय राम कथा हो रही थी जो तुलसीदास जी ने अपने गुरुदेव से सूकर क्षेत्र में सुनी थी। वहाँ से वे काशी आ गए और प्रह्लाद घाट पर एक ब्राह्मण के घर रहने लगे।

यहीं पर उनके भीतर कवित्व शक्ति का प्राकट्य हुआ और वे संस्कृत में पद्य रचना करने लगे। यहाँ एक विचित्र घटना हुई। दिन में वे जितने भी पद लिखते, रात्रि को वे सब लुप्त हो जाते थे। यह क्रम आठ दिन तक चला और आठवें दिन तुलसीदास जी को एक सपना आया। स्वप्न में भगवान शंकर ने उन्हें जनभाषा में काव्यरचना के लिए कहा। तुलसीदास जी की नींद खुल गई और जैसे ही वे उठे उन्होंने देखा कि स्वयं भवानी शंकर उनके सम्मुख हैं। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया।

भगवान शंकर ने स्वप्न की बात पुनः दोहराई कि अयोध्या जाकर हिंदी में काव्य रचना करो और आशीर्वाद दिया कि यह काव्य वेदों के समान फलदायी होगा। इतना कहकर वे अंतर्ध्यान हो गए और तुलसीदास जी भगवान शंकर के आदेशानुसार अयोध्या आ गए।

सम्वत 1631 की राम नवमी के दिन ग्रहों की स्थिति लगभग वैसी ही थी जैसी त्रेतायुग में राम जन्म के समय थी। इसी पावन दिवस पर प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन में ग्रन्थ की रचना पूर्ण हुई। सम्वत 1633 में मार्गशीर्ष मास में राम विवाह के दिन सातों कांड को पूर्ण किया। इसके बाद तुलसीदास जी काशी आ गए और उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को कथा सुनाई। 

रात के समय पुस्तक को भगवान् विश्वनाथ के मंदिर में रख दिया गया ।सुबह पट खुलने पर पुस्तक पर ‘सत्यम शिवम् सुंदरम’ लिखा था और भगवान विश्वनाथ के सही (हस्ताक्षर) थे। वहाँ उपस्थित लोगों ने भी सत्यम शिवम् सुंदरम की ध्वनि सुनी। काशी के पंडितों को यह बात रास न आई। ईर्ष्यावश वे तुलसीदास जी की निंदा करने लगे और पुस्तक को नष्ट करने के उपाय करने लगे।

एक बार उन्होंने चोर भी भेजे पर वे चोर ही सुधर गए। फिर पंडितों ने श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने के लिए मनाया। उन्हें पुस्तक देखकर बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने उस पर अपनी सम्मति लिख दी, जो इस प्रकार है – 

आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः

कविता मंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता

इस काशी रुपी आनंद वन में तुलसीदास चलता फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी कविता रूपी मंजरी बड़ी ही सुन्दर है, जिस पर श्री राम रूपी भंवरा सदा मंडराया करता है।

पंडितों को इस पर भी संतोष नहीं हुआ। अब उन्होंने पुस्तक की परीक्षा के लिए स्वयं भगवान विश्वनाथ की शरण ली। भगवान विश्वनाथ के समक्ष श्रीरामचरितमानस के ऊपर पुराण और उसके ऊपर शास्त्र और सबसे ऊपर वेद रखे और मंदिर को बंद कर दिया गया। जब दूसरे दिन प्रातः समय मंदिर खोला गया तो रामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा था। आखिरकार पंडितों ने अपनी मूर्खता के लिए क्षमा मांगी और तुलसीदास जी का सम्मान किया। तुलसीदास जी अब अस्सीघाट पर रहने लगे।

एक दिन कलियुग ने मानव रूप में आकर तुलसीदास जी को परेशान करना प्रारम्भ किया। तुलसीदास जी ने रक्षा के लिए हनुमान जी को पुकारा। तब हनुमान जी ने उन्हें विनय के पद लिखने को कहा। तभी तुलसीदास जी ने एक बहुत ही सुन्दर ग्रन्थ विनय पत्रिका की रचना की और इसे भगवान के चरणों में अर्पित किया।

श्री राम जी ने उस पर अपने हस्ताक्षर किये और तुलसीदास जी को अभय किया। तुलसीदास जी ने श्री राम कथा का गान करते हुए बाकि समय काशी में ही गुजारा, और रामकथा से सम्बंधित कुल 13 ग्रन्थ लिखे। सम्वत 1680 श्रवण शुक्ल तृतीया शनिवार को अस्सीघाट पर गोस्वामी जी ने राम राम कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया। 

    Hold on. Here is something special for you!

    Sahaj Samadhi Meditation Festival 2024

    with Bhanumathi Narasimhan

    Meditate Effortlessly | Accelerate Happiness

    Fill out this form to get more details

     
    *
    *
    *
    *
    *