मातृभाषा क्या है?
जन्म से हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं वही हमारी मातृभाषा होती है। सभी संस्कार एवं व्यवहार हम इसी के द्वारा पाते हैं। इसी भाषा से हम अपनी संस्कति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते हैं।
मातृभाषा में शिक्षण की आवश्यकता
आज बच्चे अपनी मातृभाषा में गिनती करना भूल चुके हैं। हमें उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे अपनी मातृभाषा सीखें, प्रयोग करें और इस धरोहर को संभाल कर रखें।
आप जितनी अधिक भाषाएँ जानेगें, सीखेंगे वह आपके लिए ही उत्तम होगा। आप जिस किसी भी प्रांत, राज्य से हैं कम से कम आपको वहाँ की बोली तो अवश्य आनी चाहिए। आपको वहाँ की बोली सीखने का कोई भी मौका नहीं गवाना चाहिए; कम से कम वहाँ की गिनती, बाल कविताएं और लोकगीत। पूरी दुनिया को ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार (Twinkle Twinkle Little Star) या बा – बा ब्लैक शीप ( Ba-Ba Black Sheep) गुनगुनाने की कतई आवश्यकता नहीं है। अपनी लोकभाषा में कितने अच्छे और गूढ़ अर्थ के लोकगीत, बाल कविताएं, दोहे, छंद चौपाइयां हैं जिन्हें हम प्रायः भूलते जा रहे हैं।
भारत के हर प्रांत में बेहद सुन्दर दोहावली उपलब्ध है और यही बात विश्व भर के लिए भी सत्य है। उदाहरण के लिए एक जर्मन बच्चा अपनी मातृभाषा, जर्मन में ही गणित सीखता है न कि अंग्रेजी में क्योंकि जर्मन उसकी मातृभाषा है। इसी प्रकार एक इटली में रहने वाला बच्चा भी गिनती इटैलियन भाषा में और स्पेन का बालक स्पैनिश भाषा में सीखता है।
मातृभाषा शिक्षण का महत्व
भारतीय बच्चे अपनी लोकभाषा जिसमें उन्हें कम से कम गिनती तो आनी ही चाहिए, उसे भूलते जा रहे हैं। इससे उनके मस्तिष्क पर भी गलत असर पड़ता है और उनकी लोकभाषा में गणित करने की क्षमता कमजोर हो जाती है।
जब हम छोटे बच्चे थे तब पहली से चौथी कक्षा का गणित लोकभाषा में पढ़ाया जाता था। अब धीरे धीरे यह प्रथा लुप्त होती जा रही है। मातृभाषा में बच्चों का बात ना करना अब एक फैशन हो गया है। इससे गाँव और शहर के बच्चों में दूरियाँ बढ़ती हैं। गाँव, देहात के बच्चे जो सब कुछ अपनी लोकभाषा में सीखते हैं स्वयं को हीन और शहर के बच्चे जो सब कुछ अंग्रेजी में सीखते हैं स्वयं को श्रेष्ठ, बेहतर समझने लगते हैं। इस दृष्टिकोण में बदलाव आना चाहिए। हमारे बच्चों को अपनी मातृभाषा और उसी में ही दार्शनिक भावों से ओतप्रोत लोकगीत का आदर करते हुए सीखना चाहिए। नहीं तो हम अवश्य ही कुछ महत्वपूर्ण खो देंगे।
बांग्ला भाषा में बेहद सुन्दर लोकगीत हैं जो वहाँ के लोकगायक बाउल ( baul – इकतारे के समान दिखने वाला) नामक वाद्ययंत्र पर गाते, बजाते हैं। उनके गायन को सुनकर अद्धभुत अनुभव होता है। श्री रबीन्द्रनाथ टैगोर जी ने इन्हीं से ही प्रेरणा ली थी। इसी प्रकार आंध्रप्रदेश के ‘जनपद साहित्य‘ और लोकगीत, छत्तीसगढ़ के लोकनृत्य, केरल के सुन्दर संगीत, भोजन, संस्कृति सब कुछ अद्भुत है।
अपनी सभ्यता और संस्कृति
1970 में, कॉलेज के दौरान मैं केरल गया था। तब वहाँ पर सिर्फ केरल का ही भोजन ‘लाल रंग के चावल’ खाने को मिलते थे। उन्हें सफेद चावल, पुलाव इत्यादि के बारे में कुछ नहीं पता था। वे लोग वही परम्परागत उबले हुए लाल चावल ही खाते थे जो बहुत सेहतमंद होते हैं। लेकिन आज अगर आप वहाँ जाएंगे तो बर्गर, पिज्जा, सैंडविच इत्यादि सब कुछ पाएंगे। इसी प्रकार धीरे धीरे वहाँ का पंचकर्म और आयुर्वेद लुप्त होने लगा था। लेकिन कुछ प्रबुद्ध, विद्वान् लोगों ने उस प्रथा को जीवित रखा और उसे धीरे धीरे वापिस ले आए हैं।
अतः हर प्रांत की कुछ न कुछ अपनी अनूठी विशेषता होती है – वहाँ का भोजन, संस्कृति, बोली, संगीत, नृत्य इत्यादि जिसका मान करना चाहिए और उस धरोहर को संभाल के रखना चाहिए। यही तो असल में विविधता है जिसका हमें आदर और प्रोत्साहन करना चाहिए। तभी तो हम वास्तव में ‘विविधता में एकता’ की कसौटी पर खरे उतरेंगे जिसका सम्पूर्ण जगत में उदाहरण दिया जा सकेगा।
यही बात मैं विश्व की आदिवासी संस्कृति के बारे में भी कहूंगा। कनाडा की अपनी एक विशिष्ट आदिवासी प्रजाति है। उनकी अपनी संस्कृति है और इस प्रजाति को वहाँ की सर्वप्रथम नागरिकता का सम्मान प्राप्त है। इसी प्रकार से अमरीका में भी, मूल अमरीका के निवासी या अमेरिकन इन्डियन्स प्रजाति के लोग, जो अब अपनी भाषा तो भूल चुके हैं, किन्तु अब भी उन्होनें अपनी संस्कृति, सभ्यता को जीवित रखा है। इसी प्रकार से दक्षिण अमरीकी महाद्वीप में भी ऐसा ही है।
मेरे विचार से यह (भारतीय भाषाएँ एवं संस्कृति) विश्व की एक अनुपम धरोहर है। हमें अपनी सभ्यता के बारे में सचेत रहना चाहिए और उसे प्रोत्साहित करना चाहिए।
– गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर